Friday, June 7, 2013

कर्मयोग



अर्जुन बोले - हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्‍ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझ भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥१॥

आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्‍चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्‍त हो जाऊँ॥२॥

श्रीभगवान बोले - हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्‍ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें से सांख्ययोगियों की निष्‍ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्‍ठा कर्मयोग से होती है॥३॥

मनुष्य न तो कर्मो का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्‍ठा को प्राप्‍त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्‍ठा को ही प्राप्‍त होता है॥४॥

निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥५॥

जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता हैं, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है॥६॥

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचारण करता है, वही श्रेष्‍ठ है॥७॥

तू शास्‍त्रविहित कर्तव्यकर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्‍ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥८॥

यज्ञ के निमित्त किये जानेवाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों स बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्यकर्म कर॥९॥

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उसने कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो॥१०॥

तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्‍त हो जाओगे॥११॥

यज्ञ के द्वारा बढाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्‍चत ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता हो, वह चोर है॥१२॥

यज्ञ से बचे हुए अन्न को खानेवाले श्रेष्‍ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते है और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥१३॥

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है, अन्न की उत्पत्ति वृष्‍टि से होती है, वृष्‍टि यज्ञ से होती है औऱ यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होनेवाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्‍ठित है॥१४-१५॥

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्‍टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥१६॥

परन्तु जो मनुष्‍य आत्मा में ही रमण करनेवाला और आत्मा में ही तृप्‍त तथा आत्मा में ही सन्तुष्‍ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है॥१७॥

उस महापुरुष का इस विश्‍व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंकि न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्‌मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता॥१८॥

इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्‍त हो जाता है॥१९॥

जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्‍त हुए थे। इसलिए तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥२०॥

श्रेष्‍ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते है। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥२१॥

हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्‍त करने योग्य वस्तु अप्राप्‍त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥२२॥

क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते है॥२३॥

इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्‍ट-भ्रष्‍ट हो जाए और मैं संकरता का करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्‍ट करनेवाला बनूँ॥२४॥

हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोक संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥२५॥

परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्‍त्रविहित कर्मों में आसक्तवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे। किन्तु शास्‍त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे॥२६॥

वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते है तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥२७॥

परन्तु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे है, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नही होता॥२८॥

प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे॥२९॥

मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझे में अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥३०॥

जो कोई मनुष्य दोषदृष्‍टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुकरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥३१॥

परन्तु जो मनुष्य मुझ में दोषारोपण करते हूए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों मे मोहित और नष्‍ट हुए ही समझ॥३२॥

सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्‍त होते है अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्‍ठा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा?॥३३॥

इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विध्न करनेवाले महान शत्रु हैं॥३४॥

अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है॥३५॥

अर्जुन बोले - हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?॥३६॥

श्रीभगवान बोले - रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥३७॥

जिस प्रकार धूएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है॥३८॥

और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है॥३९॥

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि - ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है॥४०॥

इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक माल डाल॥४१॥

इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्‍ठ, बलवान और सूक्ष्म करते हैं; इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भर पर बुद्धि और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर हैं वह आत्मा है॥४२॥

इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्‍ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥४३॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्‍भगवद्‍गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
-----हर हर महादेव..........जय अम्बे

आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति
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